2012 की फिल्म paan singh tomar केवल एक बायोपिक नहीं है; यह भारतीय समाज, राजनीति, और मानवीय पीड़ा का दर्पण है। यह कहानी उस संघर्ष की है जो किसी व्यक्ति को एक सैनिक से डकैत (या बागी) बना देता है।
इस फिल्म का दार्शनिक दृष्टिकोण न केवल हमारे प्राचीन ग्रंथों जैसे भगवद गीता, रामायण, महाभारत, और उपनिषदों में निहित है, बल्कि यह आधुनिक विदेशी दर्शन जैसे एग्ज़िस्टेंशियलिज़्म और अराजकतावाद से भी गहरे प्रभावित है।
यह लेख पान सिंह तोमर की कहानी को दार्शनिक, आध्यात्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण से विश्लेषित करेगा।
पान सिंह तोमर (इरफ़ान खान द्वारा अभिनीत) एक सैनिक है जो भारत के लिए एथलीट बनता है, लेकिन अन्याय और सामाजिक परिस्थितियों के कारण वह बंदूक उठाने पर मजबूर होता है। यह फिल्म एक सवाल उठाती है:
क्या कोई भी व्यक्ति स्वाभाविक रूप से बुरा होता है, या परिस्थितियाँ उसे ऐसा बना देती हैं?
यह प्रश्न हमें भगवद गीता के कर्म और धर्म के सिद्धांत की ओर ले जाता है। गीता में कहा गया है,
“स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।” पान सिंह का विद्रोह उसके धर्म की रक्षा का प्रतीक है।
गीता के अर्जुन की तरह, पान सिंह भी अपने जीवन में एक ऐसे मोड़ पर खड़ा होता है जहाँ उसे अपने “कर्म” और “धर्म” के बीच चयन करना पड़ता है। अर्जुन युद्ध से भागना चाहता था, लेकिन कृष्ण उसे कर्मयोग का पाठ पढ़ाते हैं। पान सिंह अपने परिवार और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए “धर्मयुद्ध” लड़ता है।
पान सिंह की कहानी महाभारत के कर्ण की याद दिलाती है, जो समाज द्वारा ठुकराया गया था और अंततः विद्रोही बना। पान सिंह का “डकैत” बनना उस सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है जिसने न्याय से अधिक अन्याय को बढ़ावा दिया।
पान सिंह का गाँव छोड़कर चंबल के बीहड़ों में जाना रामायण के वनवास का आधुनिक संस्करण लगता है। जहाँ राम ने अपनी स्थिति को स्वीकार किया और धर्म का पालन किया, वहीं पान सिंह ने अन्याय के खिलाफ प्रतिशोध को चुना।
योग वशिष्ठ में वर्णित है कि *”जीवन की हर परिस्थिति एक चुनौती है, और इसे स्वीकार करके ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।
“* पान सिंह के जीवन में यह चुनौती अन्याय और गरीबी के रूप में सामने आती है।
सार्त्र के दर्शन के अनुसार, मनुष्य अपनी परिस्थितियों के बावजूद स्वतंत्र है। पान सिंह ने अपनी परिस्थितियों को खुद से परिभाषित किया और “डकैत” बनकर अपनी कहानी लिखी।
नीत्शे का विचार है कि “मनुष्य को अपनी नियति खुद बनानी चाहिए।” पान सिंह का विद्रोह समाज के नियमों के खिलाफ उसकी स्वायत्तता का प्रतीक है।
हाब्स का कहना है कि यदि राज्य अपने नागरिकों की सुरक्षा नहीं कर सकता, तो नागरिक राज्य के प्रति वफादार रहने के लिए बाध्य नहीं हैं। पान सिंह का विद्रोह इसी विचारधारा का उदाहरण है।
फिल्म का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व
उपनिषदों में कहा गया है कि आत्मा स्वतंत्र है और किसी भी अन्याय को सहन नहीं करती। पान सिंह का विद्रोह उस आत्मा का प्रतीक है जो अन्याय के खिलाफ खड़ी होती है।
रामचरितमानस में कहा गया है कि क्रोध को नियंत्रित करना धर्म है, लेकिन पान सिंह का विद्रोह उस समय का प्रतीक है जब समाज ने उसे हर तरफ से तोड़ दिया।
फिल्म यह बताती है कि जब समाज अपने नागरिकों को न्याय और सम्मान नहीं देता, तो वे विद्रोही बन जाते हैं।
पान सिंह का संघर्ष मानवता के उस दर्शन को दर्शाता है जो हमें महाभारत और भगवद गीता में मिलता है – “अन्याय के खिलाफ खड़े होना ही सच्चा धर्म है।”
यह फिल्म हमें यह याद दिलाती है कि यदि समाज में समानता और न्याय नहीं होगा, तो पान सिंह जैसे बागी पैदा होते रहेंगे।
फिल्म की सीमाएँ:
पान सिंह का चरित्र पूरी तरह से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि हिंसा कभी समाधान नहीं हो सकती।
पान सिंह तोमर केवल एक व्यक्ति की कहानी नहीं है; यह भारतीय समाज की कहानी है। यह फिल्म हमें याद दिलाती है कि समाज का कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों को न्याय, समानता और सम्मान दे।
अंतिम वाक्य:
“इस फिल्म को देखना केवल मनोरंजन नहीं है; यह समाज और स्वयं के प्रति एक आत्ममंथन है।”