“एनिमल” (2023) केवल एक थ्रिलर फिल्म नहीं है, बल्कि यह रिश्तों, पहचान, और जीवन के जटिल पहलुओं को लेकर एक गहरी दार्शनिक चर्चा प्रस्तुत करती है। फिल्म का नायक, विजय सिंह, अपने पिता बलबीर के साथ रिश्तों के गहरे और विद्वेषपूर्ण संघर्ष से गुजरता है। इस फिल्म की कहानी और उसके पात्र भारतीय और पश्चिमी दर्शन के तत्वों से प्रेरित हैं, जो फिल्म को एक दार्शनिक दृष्टिकोण से और भी आकर्षक बनाती है।
1. “धर्म” और “कर्म” की अवधारणा:
भारतीय दर्शन में धर्म (कर्तव्य) और कर्म (क्रिया) की परिभाषा जीवन की नैतिकता और सही कार्यों को लेकर स्पष्ट है। गीता में कहा गया है:
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
विजय का अपने पिता से प्यार और बलबीर के लिए उसका संघर्ष इस धारणा को परिभाषित करता है, जहां विजय अपने कर्म को निभाता है, लेकिन उसे कभी भी अपना फल नहीं मिलता। विजय के लिए उसका कर्तव्य, उसके प्रेम से ऊपर होता है, लेकिन उसे यह महसूस होता है कि वह कभी भी अपने पिता की आंखों में सफलता या प्यार नहीं देख पाता। यहाँ एक गहरी दार्शनिक जटिलता है कि जब एक व्यक्ति अपने कर्तव्य में पूरी तरह से समर्पित हो जाता है, तो क्या वह अपने भावनात्मक पक्ष को नजरअंदाज कर देता है?
2. पारिवारिक संबंध और “अहिंसा”:
भारतीय संस्कृति में परिवार को अत्यधिक महत्व दिया जाता है और पारिवारिक संबंधों में अहिंसा (हिंसा से बचाव) के सिद्धांत को अपनाना अनिवार्य होता है। फिर भी, विजय का आक्रोश और उसकी हिंसक प्रवृत्तियाँ एक चिंता का विषय बनती हैं। जबकि भारतीय दर्शन अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म मानता है, फिल्म यह प्रश्न उठाती है कि क्या पारिवारिक रिश्तों में अहिंसा के सिद्धांत को बनाए रखना हमेशा संभव है, जब मनुष्य के अंदर गहरी नाराजगी और दर्द हो?
3. क्षमा और पुनर्मिलन:
फिल्म का अंत यह संदेश देता है कि क्षमा और पुनर्मिलन हमेशा संभव है, भले ही रिश्तों में गहरी दरारें हों। बलबीर का विजय से माफी मांगना भारतीय दर्शन में “क्षमा” की महत्ता को दर्शाता है। यही “पुनः आरंभ” की संभावना बताती है, जो जीवन के हर पहलू में संभव है, अगर इच्छाशक्ति हो।
1. फ्रायड का मनोविज्ञान और विजय का आक्रोश:
विजय का आक्रोश, उसकी हिंसक प्रवृत्तियाँ, और उसके पिता से अनकहे सवाल फ्रायड के मनोविज्ञान के सिद्धांत “Id” और “Ego” को छूते हैं। फ्रायड के अनुसार, मनुष्य का “Id” (अवचेतन इच्छाएँ) उसे उसकी भावनाओं के अनुसरण के लिए प्रेरित करता है, जबकि “Ego” (सचेतन) उसे समाजिक रूप से स्वीकृत क्रियाओं की ओर मोड़ता है। विजय का चरित्र दर्शाता है कि जब “Id” और “Ego” के बीच संतुलन नहीं रहता, तो व्यक्ति की मानसिक स्थिति विकृत हो सकती है। विजय का आक्रोश एक ऐसे व्यक्ति का रूप है जो अपनी इच्छाओं और समाज के बीच संतुलन नहीं बना पाता।
2. अस्तित्ववाद और विजय का जीवन संघर्ष:
विजय का जीवन एक अस्तित्ववादी संघर्ष को दर्शाता है, जहां वह अपने परिवार और अपने अस्तित्व को लेकर हमेशा प्रश्न करता है। “सार्त्र” और “कायम” के अस्तित्ववाद के सिद्धांत के अनुसार, विजय का जीवन एक निरंतर संघर्ष है – “क्या मैं अपने पिता के बिना पूर्ण हूं?” यही अस्तित्ववाद के विचारों को पूरी तरह से उद्घाटित करता है। विजय का जीवन इसी विचारधारा को दर्शाता है, जहां वह अपने अस्तित्व के उद्देश्य को खोजता है।
3. नीत्शे का “Übermensch” (सुपरमैन) और विजय का पात्र:
फिल्म में विजय का चरित्र नीत्शे के “Übermensch” से मेल खाता है। नीत्शे का सिद्धांत कहता है कि एक व्यक्ति को अपने स्वयं के मूल्यों को स्थापित करना चाहिए और समाज के स्थापित सिद्धांतों से ऊपर उठकर अपना रास्ता चुनना चाहिए। विजय का अपने पिता से टूटे रिश्ते के बाद खुद का मूल्य स्थापित करना और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए हर खतरे का सामना करना इस सिद्धांत को दर्शाता है।
1. हिंसा का महिमामंडन:
जहाँ भारतीय दर्शन अहिंसा को सर्वोत्तम गुण मानता है, “एनिमल” फिल्म हिंसा को एक साधन के रूप में प्रस्तुत करती है। विजय की हिंसक प्रवृत्तियाँ और हत्या को महिमामंडित करना इस परंपरा के विपरीत लगता है। क्या हिंसा को सही ठहराया जा सकता है, खासकर जब बात परिवार की सुरक्षा की हो? यह फिल्म इस दार्शनिक प्रश्न को छोड़ देती है कि क्या हम हिंसा के माध्यम से न्याय ला सकते हैं, या क्या इससे और भी समस्याएँ पैदा होती हैं?
2. महिलाओं की भूमिका का सीमित दृष्टिकोण:
फिल्म में महिलाओं के किरदारों को सीमित तरीके से प्रस्तुत किया गया है। गीता और ज़ोया जैसे पात्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन उन्हें हमेशा पुरुष पात्रों के साथ जोड़कर ही चित्रित किया गया है। भारतीय दर्शन में नारी को शक्ति (शक्ति) और दृष्टि (ज्ञान) के रूप में देखा जाता है, लेकिन फिल्म में महिलाओं का योगदान बहुत सीमित रखा गया है।
“एनिमल” भारतीय और पश्चिमी दर्शन का एक शक्तिशाली मिश्रण प्रस्तुत करती है, जो रिश्तों, हिंसा, कर्तव्य और आत्म-ज्ञान के बारे में गहरे प्रश्न उठाती है। विजय का संघर्ष केवल व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि यह एक दार्शनिक यात्रा भी है। यह फिल्म दर्शाती है कि जब रिश्तों में संवाद की कमी होती है, तब अहिंसा और प्रेम के सिद्धांतों की विफलता होती है। अगर हम भारतीय दर्शन के सिद्धांतों को पश्चिमी मनोविज्ञान और अस्तित्ववाद से जोड़कर देखें, तो यह फिल्म जीवन के काले और सफेद पहलुओं को एक साथ रखती है।
क्या यह फिल्म हमें यह सिखाती है कि हम अपने रिश्तों में अहिंसा, संवाद और क्षमा के सिद्धांतों को प्राथमिकता दें? या क्या हमें किसी संघर्ष से निपटने के लिए अपने अस्तित्ववादी दृष्टिकोण और नीत्शे के सिद्धांतों की ओर बढ़ने की आवश्यकता है? यह फिल्म हमें यही सवाल पूछने के लिए मजबूर करती है।
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